त्रियोगी
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जी, ये कविताएँकुछ अजीब ही हैं।ये पुरानों का दंभ हीचूर नहीं करतीं,नयों का नक़लीपन भीउभाडती हैं। ये कविताएँदरअसलउस ‘दिनकर’ की हैंजो हर शामपुराना डूबता हैलेकिन हर सुबहनया उगता हैं। पद्धर्मजबकल के …
अपनी धरतीअपना परिवेश छोड़ कहाँ जाएँगे हमजड़ें तो भीतर तकगहरी धँसी हैंइसी माटी मेंलेकिन पौधे को उगने के लिएचाहिए जो जलवह तो आयेगा बादलों से !बादल-जोदूर-दूर के देशों से आते हैंलाते …
ये अँकुराये पौधे सारेउन बेचारे हाथों में आने दोजो मरे खपे इतने दिन।आदमी और गाय बैल जुते सभीबूढ़े भी, बच्चे भी।जेठ की धूप मेंआधे पेट ही घूमे बेचारेगोबर से लीपी …
भीड़-भरे चौराहे परतू गाता रहयहाँ के सात सुरों मेंन बँधने वाला गीत।तुझे उनकी तरहसाज-बाज की जरूरत ही क्या है ?अच्छा ही कियाजो तूने गीत का ‘स्थायी’ बदल दियामगर यह घबराहट …