Sonwalkar

असली चेहरे के बगैर

माना कि
एक दिन बुझाना ही था
तुम्हारा किताबी आक्रोश
मगर ये सब
पलक झपकते ही
हो जायेगा
ऐसी उम्मीद न थी।
कम-स-कम
तेरह दिन का शोक
तो मना लेते
आक्रोश की खुदखुशी पर।
कुछ दिन तो रहते
बिना मुखौटों के!
पर तुमने तो रातों-रात
फिर बदल लिया चेहरा
चढ़ा लिया
औरों का दिया हुआ चश्मा।
क्या सचमुच दिखाई देने लगा हरा-हरा?
तो फिर चरो
मुखौटे बदल-बदल कर
असली चेहरे के बगैर मरो।

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