माना कि एक दिन बुझाना ही था तुम्हारा किताबी आक्रोश मगर ये सब पलक झपकते ही हो जायेगा ऐसी उम्मीद न थी। कम-स-कम तेरह दिन का शोक तो मना लेते आक्रोश की खुदखुशी पर। कुछ दिन तो रहते बिना मुखौटों के! पर तुमने तो रातों-रात फिर बदल लिया चेहरा चढ़ा लिया औरों का दिया हुआ चश्मा। क्या सचमुच दिखाई देने लगा हरा-हरा? तो फिर चरो मुखौटे बदल-बदल कर असली चेहरे के बगैर मरो।