साधारण बातचीत में भी
उसके चेहरे पर
तनाव बना रहता है
और माथे की शिरायें
अलग दिखाई देती है –
उभरी हुई
जैसे वो किसी बहस में
भाग ले रहा हो
वह लगातार बोलता रहता है।
(सहज बातों को भी दार्शनिक मोड़ देने की असफल कोशिश करता हुआ)
उसे भय है
कि अगर वह चुप रहा
तो उसे मुर्ख समझ लिया जायेगा।
लतीफे भी उसके
सुनियोजित होते हैं
अक्सर पूर्वाभ्यास किए हुए
और उन पर
पहला अट्टहास
उसका खुद का होता है
हँसने वालों में भी
वह पहला ही रहना चाहता है
कमलेश्वर की कसम
वह अपने को
महान आदमी मनवाकर ही रहेगा।
यूँ वो ‘आदमी’
बहुत कम क्षणों में रहता है।
अक्सर उसका ‘लेखक’ ही
हावी रहता है उस पर।
इसीलिए वह
‘जीवन की निरर्थकता और ऊब’ का
अस्तित्ववादी मुहावरा
इस्तेमाल करता है
यद्यपि बॉस को मक्खन लगाने का
कोई अवसर वह नहीं खोता।
मनुष्य की पीड़ा, उसका दर्द
उसके शब्द-शब्द से टपकता है
लेकिन इधर दस वर्षों से
वह अपने घर नहीं गया।
बीमार पिता को देखने भी नहीं
अब वे उसे दे भी क्या सकते हैं।
और फिर वह उनके प्रति
प्रतिबद्ध भी तो नहीं है
सम्पादक उसे
जल्दी साहित्य में प्रतिष्ठित करें
नहीं तो वह
कुंठित होकर
समीक्षक हो जायेगा