जी, ये कविताएँ
कुछ अजीब ही हैं।
ये पुरानों का दंभ ही
चूर नहीं करतीं,
नयों का नक़लीपन भी
उभाडती हैं।
ये कविताएँ
दरअसल
उस ‘दिनकर’ की हैं
जो हर शाम
पुराना डूबता है
लेकिन हर सुबह
नया उगता हैं।
पद्धर्म
जब
कल के विद्रोही कवि
बन जाए
दरबारी शायर
जब
देश का बुद्धिजीवी
सिर्फ शब्दों का युद्ध लड़े
और जीवन-संग्राम से
हो जाए रिटायर
जब
बीच राह में ही
बर्स्ट हो जाए
नेता के
आश्वासनों का टायर
तब जरूरी है
कि युगबोध को
व्यक्त करने के लिए
लिखा जाए
सिर्फ सेटायर !
कथा-चिन्तन
प्रेमचन्दजी,
तुमने
सपने में भी नहीं सोचा होगा
कि
‘दो बैलों की कथा’
एक दिन बन जाएगी
समूचे देश की व्यथा ?