ये अँकुराये पौधे सारे
उन बेचारे हाथों में आने दो
जो मरे खपे इतने दिन।
आदमी और गाय बैल जुते सभी
बूढ़े भी, बच्चे भी।
जेठ की धूप में
आधे पेट ही घूमे बेचारे
गोबर से लीपी यह धरती
मरियल बैलों से ही
जोती गयी यह जमीन
‘होरी’ ने लँगोटी बाँधकर
पैरों से धरती को गोड है
घुटने-घुटने कीचड़ में धँसकर
दिन दिन भर झुककर
धान के अंकुर ये रोपे हैं।
ग्राम गीत की धुन पर
गुजार दिये दिन कितने।
कुएँ की मोट से लाये जल
आफतों से लड़ते, मुसीबतों से झगड़ते
ठीक समय पर की बोनी बखरनी।
तब कहीं चार महीनों में
धान के ये पौधे डोलते दिखाई दिये
बालियाँ फूटती हैं
दाने भरते आते
हवा के झौंके संग
हँसते हैं ये बिरवे
झुर्रियाँ भी खुश हैं
उम्मीदें पलती हैं
कि जिन-जिन ने श्रम किया
वे सभी खायेंगे भर पेट अन्न।
ओ रही हवा
हफ्ते भर यूँ ही बहना धीमे-धीमे
आँधियों का जोर शोर मत करना
कोमल अँखुओं को मिट्टी में मिलाना मत
ओ बादल
गर्जन तर्जन लेकर व्यर्थ मत घिरो यहाँ
खलिहानों पर मत कर देना उपल वृष्टि
सिर्फ पन्द्रह दिन धीर धरो
अच्छे बादल राजा
ये पकी हुई धान
मेहनत का सगुन
इनको घर ले जाने दो !