Sonwalkar

पिंजरें से प्रतिबद्ध

पिंजरे का द्वार
खुला हुआ हैं
फिर भी वह
उसी में बैठा है आश्वस्त
पिंजरे की
रंगीन सलाखों पर आश्वस्त!

आसमान की नीलिमा
या
धरती की हरियाली
दोनों ही उसे
निरर्थक लगते हैं

चुनौतियों की
तेज़ किरणों से भी
उसके पंखों के हौसले –
नहीं जगते हैं।
न वो
अन्याय देखकर चीखता है
न आनन्द में विभोर गाता हैं

वाणी उसकी – अवरुद्ध है
अब वह सिर्फ सुविधाभोगी
पिंजरे से प्रतिबद्ध है।

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