Sonwalkar

नया साल

मुड़कर पीछे देखने की भी
फुरसत नहीं
दो घड़ी दम लेने की भी
इजाजत नहीं ।
कितनी अजीब है
ये जिदंगी की कशमकश
कि इसकी रफ्तार के सामने
सभी है बेबस ।
दोैड़ना/थकान/बचना /रूकना
फिर चल पड़ना
गिरना /उठना/उठकर भागते रहना
फिर भी हम
लादे है कंधो पर बोझ खुशी-खुशी
खेलते जा रहे है जुँआ
लगाते जा रहे है दाँव
कि कहीं मिल जाये छाँव
प्रेम की /समर्पण की /आस्था की
शायद मिल जाये कोई
बिना मुखौटे वाला चेहरा
जिस पर कतई न हो
बंदिशों/औपचारिकताओं का पहरा
नहीं मिलता ऐसा कोई
जिससे मिल जाये दिल
ऐसा नही मिलता कोई
जिसकी मोहब्बत के उजाले में
मिल जाये मंजिल
फिर भी हम भागते है
चिपके रहते है जिन्दगी से
जैसे जन्म पा जाना ही
सबसे बड़ी उपलब्धि है
इसी के इशारे पर हँसते, रोते
जागते, सोते है
पूरी कोशिशों के बाद भी
हम ये साहस नहीं जुटा पाते
कि झटक कर फेंक दे
इस जिन्दगी के बोझ को हमेशा के लिये
ताकत लगाते है पूरी जोर से
टूट जाती है कुछ कड़ियाँ
मगर एक गाँठ नही खुलती
ये गाँठ (उम्मीदों की )
जो हमने ही लगाई है ।
उसे हम खुद भला कैसे तोड़ दे?
और फिर दौंड़ने लगते हैं सरपट
कभी इस गली कभी उस तट।
कि मिल जाये कोई चेहरा
जिसकी आँखों में हम पा सकें
अपने विश्वासों का बिम्ब।
ऐसा दो टूक आदमी ‘आइने जैसा‘
जिसमें देख सकें हम
अपने आत्मीय प्रतिबिम्ब
ऐसा स्पर्श जो हमारे घावों पर
बन सकें मरहम।
जो हमारी बैचेन प्यास को
थोड़ा भी कर सके कम।
इसी खोज में
भागते दौंड़ते
हम होने लगते है
पस्त हिम्मत
और बेदम।
तभी कानों में
यह रहस्य खोलती हैं जिन्दगी
एक इलजाम की तरह बोलती है जिन्दगी
‘जनाब, मैंने नहीं पकड़ा
आपको कभी
आप ही लिपट रहे हैं
मेरे पैरों में‘!

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