Sonwalkar

जनावतार कृष्ण

जनावतार
तुम्हारी लीला
सचमुच अपरम्पार है
कारागार में जन्मे
और मतपेटी को
सुदर्षन चक्र की तरह प्रयोग कर
आतताईयो की
अत्याचारी गर्दन उडा दी
हम तो समझ बैठै थे
कि तुम एकदम पाषाण हो
न तुममे करुणा है, न क्रोध
और न अन्याय के प्रति विद्रोह
इस मुगालते में
हम तुम्हे पिछडा हुआ मानते रहें
और परिसंवाद में प्रतिबद्धता/क्रांति/आवाम की बहसों में मुठ्ठियाँ तानते रहे।
द्ध मगर तुम्हारे भीतर तो जैसे
अडिग आस्था
और मर्म की चिनगारी छिपी बैठी थी
जनगनमन ठीक ठीक जुडा हुआ था
वक्त की धडकनों से
और तुम सहस्त्रशीर्ष पुरुष की तरह
प्रकट हो गये
इतिहास को सार्थक मोड देते हुए
निन्यानवे अपराध क्षमा किए तुमने
लेकिन सोैवे अपराध पर
फूुंक ही दिया
क्रांति का पाचजन्य।
धर्म क्षेत्र कुरू क्षेैत्रे ’’
सार्थक हो गई
गीता की उद्घोषणा
’’यदा यदा ही धर्मस्य’’
गहरे अँधेरे तल से
तुम उठा लाये
प्रजातंत्र की गेंद,
और तानाशाही नाग के सिर पर
नर्तन करते दिखाई दिये ।
सत्ता की आँखांे पर
पट्टी बंधी थी अहंकार की
उन्हें दंभ था, वंश की प्रतिष्ठा का
जयजयकारो के कोलाहल में
खो चला था
कौरवों के पाप का घड़ा
द्रोपदियों की लाज लूट रही थी
सरे दरबार चुप थे
द्रोणाचार्य से बिके हुए रचनाकार
अपनी नमक हलाली
साबित करते हुए
सभी जनजन ने
अपने मत का सही उपयोग किया,
निर्णय के क्षण में और उठा लिया
स्वाधीनता का गावर्धन उंगलियो पर
उसी परलगाा था निषान मतदान केन्द्र में द्ध
इंद्र के साम्राज्य का हुआ अंत
दिशा दिषा गूंज उठी
गगन भेदी जयजयकार।
सचमुच तुम्हारी लीला है अपार
है जन अवतार।

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