Sonwalkar

एक बार फिर

फिर
बजी नेताजी का भाषण पर
चमचों की ताली
फिर
होने लगी शब्द बे-असर
अर्थ से ख़ाली।

फिर
बिचौलिए देने लगे
मूँछों पर ताव-
फिर
आसमान छूने लगें
जरुरी चीजों के भाव।

फिर
शक्ति-प्रदर्शन के लिए
होने लगी रैलियाँ
फिर
रिश्वत के लिए
खुलने लगीं सेठों की
थैलियाँ

फिर
शुरू हो गई अखाडें में
सत्ता की दौड़
प्रान्तों में चलने लगे
दाँव-पेंच जोड़-तोड़।

फिर
बेख़ौफ़ होकर घुमने लगा भ्रष्टाचार
फिर
होने लगी तस्करी
मिली-भगत का व्यापार।

फिर
बदलने लगी
सत्ताधारी की भाषा
क्या फिर बदलनी पड़ेगी
आज़ादी की परिभाषा ?

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