Sonwalkar

अर्थहीनता

हैरत है कि आखिर
क्यों जी रहे हैं लोग?
जानते हुए भी
नाइन्साफी का ज़हर
क्यों पी रहे हैं लोग?

आखिर जिन्दा रहने में
इनका मकसद क्या है?
निरर्थक जिन्दा रहने की
इनकी आखिरी हद क्या है?
ऐसे आराम में है लोग
जैसे कुछ भी नहीं बचा करने को
ऐसे तटस्थ है बुद्धिजीवी
जैसे कोई मोर्चा नहीं बचा मरने को!

न वे रोते हैं, न वे गाते हैं
न पीछे हटते हैं!

न आगे आते हैं!
न जोतते हैं जमीन
न सितारे तोड़कर लाते हैं!
न वे करते हैं क्रांति
न वे नया समाज बनाते हैं!

जिंदगी और मौत के बीच
किसी तरह घसीट रहें हैं लोग!
सुबह-शाम
अपने ही उदास साये से
लिपट कर जख्म
दिए जाती है विलिस्था खामोश अपनी जुबानें
सी रहे हैं लोग
हैरत है….

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